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गर्भ में ज्ञान, जन्म के बाद वैराग्य: शुकदेव मुनि की कथा

गर्भ में ज्ञान, जन्म के बाद वैराग्य: शुकदेव मुनि की कथा

 

शुकदेव मुनि: जब तक जीव गर्भ में रहता है, तब तक उसे ज्ञान, वैराग्य और पूर्व जन्मों की स्मृति बनी रहती है।

 

शुकदेव मुनि : शुकदेव मुनि महाभारत के रचयिता वेदव्यासजी के पुत्र थे। और बचपन में ही ज्ञान प्राप्ति के लिए वन में चले गए थे। इन्होंने ही परीक्षित को श्रीमद्भागवत पुराण की कथा सुनाई थी। शुकदेव जी ने व्यास जी से महाभारत भी पढ़ा था और उसे देवताओं को सुनाया था। शुकदेव मुनि कम अवस्था में ही ब्रह्मलीन हो गए थे। आइए व्यास पुत्र शुकदेव के जन्म और गर्भ ज्ञान में प्राप्त शुकदेव मुनि की कथा के बारे में जानते हैं।

 

शुकदेव मुनि : गर्भ में बारह वर्ष  

 

एक समय महर्षि वेदव्यास जी को विवाह करके गृहस्थधर्म पालन की इच्छा हुई। बहुत सोच-विचार कर वे जावालि मुनि के पास गए और उनकी कल्याणमयी कन्या के लिए उनसे प्रार्थना की। जावालि ने बड़े हर्ष से महर्षि वेदव्यास जी के साथ अपनी कन्या वटिका का विवाह कर दिया। समय पर व्यासपत्नी गर्भवती हुईं, शुक्ल पक्ष के चंद्रमा की तरह व्यासपत्नी का भी गर्भ बढ़ने लगा। गर्भ बढ़ते-बढ़ते बारह वर्ष बीत गए, परंतु प्रसव ही नहीं हुआ।

 

शुकदेव मुनि का गर्भ में वेदों का अध्ययन


महर्षि व्यासजी की कुटिया में सर्वदा हरिचर्चा हुआ करती थी। अपने ज्ञान की विशेषता से गर्भस्थ बालक जो कुछ सुनता, वह स्मरण कर रखता। इस तरह उस बालक ने गर्भ में ही वेद, स्मृति, पुराण और सम्पूर्ण मुक्ति-शास्त्रों का अध्ययन कर लिया। वह गर्भ में ही दिन-रात स्वाध्याय किया करता। गर्भ से निकलने के बाद बढ़ना चाहिए, इस बात की उसे तनिक भी चिंता नहीं थी।

 

गर्भ में ज्ञान प्राप्त करने वाला बालक: शुकदेव मुनि


गर्भस्थ बालक के बहुत बढ़ जाने और प्रसव न होने से शुकदेव मुनि की माता को बड़ी पीड़ा होने लगी। एक दिन भगवान व्यास देव ने आश्चर्यचकित होकर बालक से पूछा - 'तू मेरी पत्नी की कोख में घुसा बैठा है, तू कौन है? किसलिए बाहर नहीं निकलता?' गर्भ ने कहा, 'मैं राक्षस, पिचाश, देव, मनुष्य, हाथी, घोड़ा, बकरी, मुर्गा सब कुछ बन चुका हूं, क्योंकि मैं चौरासी लाख योनियों में भ्रमण कर आया हूं, इसलिये यह कैसे बतलाऊँ कि मैं कौन हूं? हां, इतना अवश्य कह सकता हूं कि इस समय मैं मनुष्य होकर उदर में आया हूं। मैं किसी तरह भी गर्भ से बाहर नहीं निकलना चाहता। इस दुःखपूर्ण संसार में कौन आना चाहता? इस दुःखपूर्ण संसार में सदा से भटकता हुआ अब मैं भवबन्धन से छूटने के लिए गर्भ में योगाभ्यास कर रहा हूं। हे द्विजश्रेष्ठ! जब तक जीव गर्भ में रहता है, तब तक उसे ज्ञान, वैराग्य और पूर्व जन्मों की स्मृति बनी रहती है। गर्भ से निकलते ही भगवान की माया के स्पर्शमात्र से उसके समस्त ज्ञान, वैराग्य लुप्त हो जाते हैं, इसमें कोई संदेह नहीं है। व्यासजी ने कहा- 'तुझ पर वैष्णवी माया का असर नहीं होगा, तू इस गर्भवास रूप घोर नरक से निकलकर योग का आश्रय करके कल्याण के मार्ग में प्रवृत्त हो।' गर्भ ने कहा, 'मुझ पर माया का असर नहीं होगा, इस बात के लिए यदि आप भगवान वासुदेव की जमानत दिला सकें तो मैं बाहर निकल सकता हूं, अन्यथा नहीं।'

 

भगवान के जमानत पर संसार में हुआ आगमन


शुकदेव मुनि के गर्भ की बात सुनकर व्यासदेव उसी समय द्वारका गए और वहां भगवान चक्रपाणि (विष्णु अवतार) को अपनी सारी कष्टकहानी सुनाई। भक्ताधीन भगवान जमानत देने के लिए तुरंत उनके साथ हो लिए और व्यासजी के आश्रम में आकर गर्भस्थ बालक से बोले, 'हे बालक! गर्भ से बाहर निकलने पर तेरी माया नाश करने की जिम्मेदारी मैं लेता हूं, तू शीघ्र निकलकर सर्वश्रेष्ठ कल्याणमार्ग में गमन कर!'

 

शुकदेव जन्म और वैराग्य


भगवान के वचन सुनते ही बालक गर्भ से बाहर आकर माता-पिता को प्रणाम कर तुरंत वन की तरफ जाने लगा। प्रसव होने पर बालक बारह वर्ष का प्रायः जवान सा दीख पड़ता था। पुत्र को वन गमन करते देख व्यासजी बोले, 'पुत्र! घर में रह, जिससे मैं तेरा जात-कर्मादि संस्कार करूं!' बालक ने कहा, 'मुनिवर! अनेक जन्मों में मेरे हजारों संस्कार हो चुके हैं, इन बंधनकारी संस्कारों ने ही मुझे संसार सागर में डाल रखा है।' बालक की यह बात सुनकर भगवान ने व्यास जी से कहा, 'मुनिवर! आपका पुत्र शुक की तरह मधुर बोल रहा है, अतएव इसका नाम 'शुक' रखिए। यह मोह माया-रहित शुक आपके घर में नहीं रहेगा, इसे शुकदेव का जन्म वैराग्य के लिए हुआ है, इच्छानुसार जाने दीजिए।' इतना कहकर भगवान तो गरुड़ पर सवार होकर द्वारका की तरफ चल दिए।

 

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महर्षि वेदव्यास फिर शुकदेव मुनि को समझाने लगे। जिसका संवाद हम आपको बताने जा रहे हैं।

 

शुकदेव और व्यास संवाद

 

व्यास - जो पुत्र पिता के वचनों के अनुसार नहीं चलता, वह नरकगामी होता है, इसलिये हे पुत्र! तू मेरी बात मानकर घर में रह।
शुक - आज मैं जैसे आपसे उत्पन्न हुआ हूं, इसी प्रकार दूसरे जन्म में आप कभी मुझसे उत्पन्न हो चुके होंगे।

व्यास - जहां वेदोक्त संस्कारों को पाकर मनुष्य मोक्ष की प्राप्ति कर सकता है, ऐसे ब्राह्मण कुल में बहुत पुण्य से जन्म होता है।
शुक - शुभकर्म किए बिना यदि संस्कारों से ही मुक्ति मिलती होती तो व्रतधारी ढोंगियों की भी मुक्ति होनी चाहिए थी।

व्यास - सत्यमार्ग पर चलने वाले गृहस्थ का यह लोक और परलोक दोनों सधते हैं, यह बात तो मनु महाराज ही कहते हैं।
शुक - जो लोग घर की रक्षा से सुरक्षित और बंधु-बान्धवों के बंधन में बंधे हैं, उन मोह रोगियों का सत्यमार्ग पर रहना ही असंभव है।

व्यास - वनवास में मनुष्य को बड़ा कष्ट होता है, सारे देव-पितृकर्म रुक जाते हैं, इसलिये घर में रहना ही सुखकर है।
शुक - वनवासी महातपस्वी मुनियों को समस्त तपों का फल आप ही मिल जाता है, उनको बुरा संग तो कभी होता ही नहीं, यही उनके लिए बड़ा सुख है।

व्यास - गृहस्थ पुरुषों को अनेक प्रकार की इकट्ठी की हुई सामग्री उन्हें इस लोक और परलोक में बड़ा सुख देती है। यहां भोग से सुख होता है और दान करने से परलोक में सुख मिलता है।
शुक - अग्नि से सर्दी या चंद्रमा से गर्मी मिल जाए पर संसार में परिग्रह से किसी को न तो आजतक कभी सुख हुआ है और न होगा!

व्यास - यमराज के यहां पुत्रहीन मनुष्य को नरक में जाना पड़ता है, अतएव संसार में रहकर पुत्र उत्पन्न करना चाहिए।
शुक - हे महामुने! यदि पुत्र से ही सबको मुक्ति मिलती हो तो सूअर, कुत्ते और पतंगों की मुक्ति तो अवश्य हो जानी चाहिए।

व्यास - इस लोक में पुत्र से पितृऋण, पौत्र देखने से देवऋण और प्रपौत्र के दर्शन से मनुष्य समस्त ऋणों से मुक्त होता है।
शुक - शुक की तो बहुत बड़ी आयु होती है, वह तो न मालूम कितने पुत्रों, पौत्रों, प्रपौत्रों का मुख देखता है, परंतु उसकी मुक्ति तो नहीं होती।

इतना कहकर शुकदेव उसी समय वन को चले गए।

 

श्रीमद् भागवत पुराण ज्ञान


राजा परीक्षित को शुकदेव मुनि ने श्रीमद् भागवत पुराण की कथा सुनाई थी। यह कथा राजा परीक्षित को मृत्यु के भय से मुक्ति दिलाने के लिए सुनाई गई थी, क्योंकि उसे शाप मिला था कि वह सात दिन में तक्षक नाग के काटने से मर जाएगा। श्रीमद् भागवत पुराण में, शुकदेव मुनि राजा परीक्षित को सात दिनों तक कथा सुनाते हैं, जिसमें वे भगवान विष्णु के अवतारों, धर्म, कर्म और मोक्ष के बारे में बताते हैं। यह कथा राजा परीक्षित को मृत्यु के भय से उबरने और मोक्ष प्राप्त करने में मदद करती है। कथा के दौरान, शुकदेव मुनि राजा परीक्षित को एक उदाहरण देते हैं, जो झोपड़ी में रहने वाले एक बहेलिए की कथा है। यह कथा राजा परीक्षित को सिखाती है कि वह अपनी देह के प्रति आसक्त न रहे और मोक्ष की ओर ध्यान दें।

 

प्रत्येक मनुष्य को मोक्ष प्राप्ति चाहिए, पर जब तक जीवन में वाह्य-विषयों में आसक्त रहेंगे, तब तक जीवन में वैराग नहीं आएगा और जब वैराग नहीं आएगा, तब तक जीव 84 लाख योनियों में भटकता रहेगा। हमें गृहस्थ जीवन में रहकर प्रभु के चरणों में रहना चाहिए, तभी भगवान का प्रेम और भगवान के चरणों में जगह मिलेगी।

 

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